नेताजी सुभाषचंद्र बोस

विशेष लेख स्रोत: Swadesh -Indore तारीख: 23-Jan-2017 नेताजी से संबंधित फाइलें नहीं हो सकीं सार्वजनिक मे. ज. (डॉ.) जीडी बक्शी भा रतीय स्वतंत्रता संग्राम ने देश को ऐसे अनेक महान नेता दिए जिनके पास व्यापक दृष्टि थी। आज अगर पीछे मुड़कर देखें तो उनमें सबसे बड़ा कद नेताजी सुभाषचंद्र बोस का नजर आता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि महात्मा गांधी ने ही भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को जन आंदोलनकारी चरित्र दिया था और भारत की व्यापक किसान आबादी को स्वतंत्रता संग्राम से जोडऩे में सफलता प्राप्त की थी। वे गांधी ही थे जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन को भारतीय बनाया और उसे भारत के मुख्य शहरों में वकील समाज की अशक्त बहसबाजी के स्तर से ऊपर उठाया। पहले ये वकील ब्रिटिश सरकार के सामने केवल याचिकाएं ही दिया करता था, लेकिन 1919 के जालियांवाला हत्याकांड के बाद तो स्थितियों का कोई स्पष्टीकरण ही नहीं बचा। तब गांधी जी ने अंग्रेजों के साथ असहयोग का लक्ष्य सामने रखकर पूर्ण स्वराज्य और जन आंदोलन की जरूरत को रेखांकित किया। गांधी और बोस में स्वतंत्रता संग्राम की मूल रणनीतिक दिशा तथा उसे प्राप्त करने के साधन और पद्धितियों पर भारी मतभिन्नता थी। यह बहस उस समय की सबसे निर्णायक बहसों में थी, जिसने हमारी उस राजनीतिक व्यवस्था के स्वरूप को भी प्रभावित किया जो कि स्वतंत्रता के बाद उभरी। आगामी दिनों में भारतीय राज्य के नरम बनाम कठोर रूझान के मूल में यही बहस है। महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता संग्राम के लिए शांतिपूर्ण व अहिंसक मार्ग को अपनाया था जिसके केंद्र में मूल विचार अहिंसा थी। जबकि बोस का मानना था कि सिर्फ व्यापक हिंसा ही अंग्रेजों को देश छोडऩे के लिए मजबूर कर सकती है। भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के जारी रहने के पीछे सबसे बड़ा कारण था भारतीय सैनिकों की ब्रिटिश राज के प्रति वफादारी। एक बार यह समाप्त हो जाए तो फिर ब्रिटिश राज भारत में एक दिन भी कायम नही रह सकता था। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए बोस वैश्विक शक्तियों की सहायता लेना चाहते थे, जिससे औपनिवेशिक साम्राज्य पर सैनिक दबाव बनाया जा सके और ब्रिटिश राज को उखाड़ फेंका जा सके। आज उपलब्ध तिहासिक अंत: दृष्टि ने यह साबित कर दिया है कि यह बोस की वृहत रणनीतिक सोच व बोस और उनकी आईएनए का ही साया था जिसने रॉयल भारतीय सेना तथा भारतीय सेना की इकाइयों में बगावत को प्रेरित किया था, जिससे अंग्रेज देश छोडऩे को विवश हुए। आज उस ऐतिहासिक बहस को पुन: समझना मार्गदर्शक हो सकता है, क्योंकि जिस व्यक्ति के प्रयास वास्तविक रूप से भारत को स्वतंत्रता दिलाने के केंद्र में रहे, उस व्यक्ति की समझ और निष्ठा पर सवाल उठाए जा रहे हैं। सावधानीपूर्वक निर्मित की गई लोकप्रिय समझ के विपरीत हकीकत यह है कि अहिंसा स्वतंत्रता दिलाने में असफल हो चुकी थी। इसको काफी कुछ बांध कर रखा गया था और दूसरे विश्व युद्ध के बाद तो यह समाप्त सा हो चुका था। कांग्रेस ने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन छेड़ा था। अंग्रेजों ने इसका जवाब पूरे कांग्रेस नेतृत्व को जेल में डालकर दिया था। युद्ध के समय लागू डेकोनियन सेंसरशिप ने आंदोलन को प्रेस कवरेज की ऑक्सीजन से वंचित कर दिया था और आंदोलन को जरूरी सफलता नहीं मिली थी। 1944-45 तक तो यह पूरी तरह खत्म हो चुका था। फिर वह क्या था जिस कारण अंग्रेज दो साल बाद ही देश को जल्दबाजी में छोड़कर चले गए। जस्टिस पीवी चक्रवर्ती जो प. बंगाल के प्रथम राज्यपाल थे, ने यह सवाल पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लीमेट एटली के सामने (1956) रखा था। एटली जो भारतीय स्वतंत्रता के विषय में सर्वाधिक विवादास्पद निर्णयकर्ता समझे जाते हैं व अपने जवाब में अत्यंत स्पष्टवादी थे, उन्होंने कहा यह सुभाष चंद्र बोस और उनकी आजाद हिंद सेना थी। राज्यपाल ने यह भी पूछा कि इस निर्णय को प्रभावित करने में महात्मा गंाधी के अहिंसक संघर्ष की क्या भूमिका थी। यह सुनते ही एटली के चेहरे पर एक व्यंग्यात्मक मुस्कराहट आई और उन्होंने चबा-चबा कर एक ही शब्द कहा 'न्यूनतमÓ। बोस पहले अफगानिस्तान और फिर वहां से इटली निकल गए थे। वहां से वे जर्मनी चले गए जहां उन्होंने युद्ध कैदियों को मिलाकर सैन्य दल की स्थापना की। उन्होंने हिटलर को भारत पर आक्रमण करने के लिए मनाने की कोशिश की। जब यह कारगर नहीं हुआ तो निडर बोस एक जर्मन पनडुब्बी यू-180 में बैठकर अटलंाटिक पार कर कैप ऑफ गुड होप होते हुए मेडागास्कर पहुंचे। वहां से वे एक जापानी पनडुब्बी आई- 28 में बैठकर जापान पहुंचे। उन्होंने सिंगापुर में एक स्वतंत्र भारत सरकार की घोषणा की तथा ग्रेट ब्रिटेन के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। उन्होंने 60,000 सैनिकों के साथ तीन बलों की इकाइयों में बँटी एक भारतीय आजाद हिंद सेना खड़ी की तथा जापान को कोहिमा तथा इंफाल होते हुए भारत पर आक्रमण करने के लिए मना लिया। आईएनए की लगभग दो टुकडिय़ों ने इस आक्रमण में भाग लिया। लगभग 26,000 आईएनए जवानों ने इस आक्रमण में अपनी जान गंवा दी। आईएनए ने ब्रिटिश साम्राज्य को हिलाकर रख दिया। ब्रिटिश सरकार भारतीय सेना में किसी व्यापक विद्रोह की आशंका से भयभीत हो गई। दुर्भाग्य से आईएनए काफी देर से पहुंची थी। अब तक युद्ध पलटी खा चुका था। हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम विस्फोट के बाद जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया। हताश हुए बिना बोस रूस से संपर्क साधने के लिए एक जापानी बम वाहक विमान में मंचूरिया चले गए और उनकी सहायता से भारत का स्वतंत्रता संग्राम जारी रखा। एक विमान के नष्ट होने की खबरें आईं पर बोस की दंतकथाएं अब तक सुनी जाती हैं। बौखलाए अंग्रेजों ने अपनी जीत का भौंडा प्रदर्शन करने के लिए आईएनए के तीन अफसरों पर जिनमें एक हिंदू, एक सिख और एक मुस्लिम था, लाल किले में अभियोग चलाया। इसने राष्ट्रवादी भावनाओं की सुनामी पैदा कर दी। रॉयल इंडियन नेवी तथा ब्रिटिश भारतीय सेना की कुछ इकाइयों में बगावत हो गई। नेवी में बगावत विशेष रूप से चिंताजनक थी। इसमें 72 जहाजों के 20 हजार सैनिकों ने भाग लिया था। युद्ध के बाद लगभग 25 लाख ऐसे भारतीय सैनिकों को, जो कि लड़ाई से मजबूत हो चुके थे, को फौज की सेवा से हटा दिया गया था। वे गुस्से में थे। इंटेलीजेंस की रिपोर्ट बहुत चिंताजनक थीं। इससे हिल चुके अंग्रेजों ने दीवार पर लिखी इबारत पढऩे में देर नहीं लगाई और सम्मान के साथ देश छोडऩे में ही भलाई समझी। नेहरू ने जानबूझकर इस झूठे कथानक को गढ़ा कि भारत ने मात्र अहिंसा की सौम्य ताकत के बल पर ही आजादी हासिल कर ली थी। इसके परिणामस्वरूप भारत ने सैनिक शक्ति को संसाधनों से वंचित रखा तथा उसे जरूरी महत्व नहीं दिया। इसी कारण चीन ने भारत के सौम्य शक्ति के गुब्बारे को 1962 में फोड़ दिया और भारत को एक अत्यंत अपमानजनक हार का सामना करना पड़ा। इस हार ने भारतीय विदेश और सुरक्षा नीति में यथार्थवाद का एक दौर का आरंभ किया जिसका चरमोत्कर्ष बांग्लादेश युद्ध में हमारी शानदार जीत में हुआ। 1857 के विद्रोह के बाद, अंग्रेजों ने भारत के विचार को नकारने की कोशिश की थी। 1872 से ही उन्होंने भारत में जाति आधारित जनगणना शुरू कर दी थी। इसके बाद उन्होंने मुस्लिम, ईसाई, सिख तथा दलित के लिए पृथक निर्वाचक-समूह बनाए। इस सबका उद्देश्य एक ही था कि भारत के विचार को इस कदर तोड़ देना, बिखेर देना कि उसमें कोई सुधार ही संभव न हो।

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